साडी बीच नारी है , कि नारी बीच साडी हैं…
साडी बीच नारी है , कि नारी बीच साडी हैं “
लेखिका -निवेदिता मुकुल सक्सेना झाबुआ
गुजरात : चंद्रकांत सी पुजारी ( सबला उत्कर्ष ) :- बहुत प्रचलित ये पंक्तिया जो संदेह अलंकार की याद दिलाती हैं । भारतीय नारी की पोषाक “सारी या साडी ” जो सुन्दर अलंकृत आभा प्रदान करती हैं। साड़ी की महिमा का विभिन्न स्वरुप प्राचीन काल से देखा जाता रहा हैं। इसका वर्णन द्रोपदी चीरहरण से भी जाना जाता हैं। तब श्री कृष्ण भगवान नारी के सम्मान स्थायीत्व प्रदान किया । हालाकि सारी बीच नारी हैं,की नारी बीच सारी पंक्तियाँ जहा साडी की महिमा को महिमा मंडित कर रही वही जिसमे संदेह अलंकार इस कारण भी हैं ,क्युकी इसमे भारतीय नारी की पुर्ण अभिव्यक्ति साडी मे दी जा रही वही साडी को नारी की दुनिया का अहम वेषभूषा बताया जा रहा हैं।
में भी चूंकि शिक्षण या कार्यलय पदस्थ होने के कारण साड़ी उपयुक्त लगती हैं हालाकि समय के अनुसार मुझे भी लगता हैं साडी ही क्यु लेकिन सूट पहनकर भी ये मेहसूस किया जो ग्रेस साडी मे है वह सूट या अन्य ड्रेसस मे नही। सबकी अपनी अपनी सोच होती है इस विषय पर ।
कोरोना लॉक डाउन मे फ़ेसबुक पर एक ग्रुप बहुत प्रचलित हुआ या कहे की सोशल मीडिया मे सभी महिलाओ का पसंदीदा रहा । जिसे देख लगता भारत मे साड़ियों के पहनने के सुन्दर सुन्दर प्रकार मौजुद हैं ।
इस डिजिटल साइट पर तरह तरह के राज्य व नित नये स्वरुप मे रोज कई कहानी व कविताओ के साथ नव युवतियो के साथ उम्र दराज व बड़े ओह्दो पर पदस्थ महिलाये भी रोज अपनी साडी मे फ़ोटौ पोस्ट करती पुरी फ़ेसबुक पर मेहफिल सी सज जाती लगना उस समय समझना मुश्किल था की कोई वैश्विक बिमारी के संक्रमण का दौर चल रहा। घर मे रहते हुये महिलाओ ने समय को तरह तरह की साडी पहनकर भारतीय संस्क्रति व संस्कार को सार्थक किया। बहुत अच्छा लगा तब जब कयी सास व बहू की कयी जोडियाँ इस ग्रुप मे इस तरह व्यस्त हुई की लगने लगा रोज सुबह शाम उनकी दिनचर्या का हिस्सा साडी को अपने शरीर पर कैसे सँवारे कुलमिलाकर एक अपनी संस्क्रति को संजोते हुये एक सार्थक दौर सोशल मीडिया पर दिखा जहा युवतिया भी बढ़ चढकर इस प्रतिस्पर्धा का हिस्सा हर दिन का एक हिस्सा बन गयी ।
हाल ही मे “साडी डे “मनाया गया पता नही कब कैसे भारत मे इस विशेष दिवस की आवश्यकता मेहसूस हुई होगी जहा हमे अपने मुख्य परिधान को याद करना पडा।
भारत मे संस्क्रति का आधार नारी से ही निर्मित हैं। ऐसे मे ध्यान आया की भारतीय नारी की पह्चान ही साढी है। भारतीय संस्क्रति मे किसी भी समाज के शुभ अवसर पर माँ की आराधना होती है माता रानी की मूर्ति लाल व नारंगी,गुलाबी रंग की साढी से सुशोभित होती है। वैसे ही भारतीय नारी को लक्ष्मी का प्रतिक भी इसिलए माना गया है हालाकि समय के बदलते मानसिकता में भी बदलाव आया है।
स्वयं को देखू तो भी लगता हैं की हम कितना भी सूट या अन्य ड्रेस पहनने का ललक रहे लेकीन ग्रेस साडी मे ही ज्यादा नजर आती हैं। जब मे कयी राष्ट्रीय कार्यशाला में प्रतिभागी बनती हु तब देखने मे आया की महिला अतिथि वक्ता सुन्दर सुन्दर साड़िया सिल्क , काटन, बाघ प्रिंट आदि से मंच सुशोभित करती है बहुत अच्छा लगता हैं देख ओर एक गौरव का अनुभव होता हैं अपने इस परिवेश पर।
वही आधुनिक समय मे पोषाक मे भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुये जिसमे नये नये हल्के कपडों के आयाम आते गये , वही महिलाये पुरूषो के कन्धे से कन्धा मिलाते हुये काम काजी रहते हुये , जब घर बाहर दोनो जगह जिम्मेदारी निभाते हुये आरामदायक परिधान जीन्स,लेगी,टॉप स्कर्ट ,या इवनिंग गाउन के साथ ,सूट, अधिकाधिक प्रचलित परिधान है,फिलहाल, फ्रॉक भी प्रचलन में है।
लेकिन ध्यान ऐसे ही नही साढी की ओर आकर्षित हुआ लेकिन वर्तमान मे शादी के उपरांत लडकियो द्वारा साढी को पहले ही नकार दिया जाता हैं। या कहे शर्त भी यही रखी जाती हैं , की शादी के बाद साडी नियमीत नही पहनेगी।फिलहाल लडकियो को अब सूट भी भारी लगने लगा हैं। तिरस्कृत भाव से साडी के लिये वर्तमान में हैं अगर पहनी जाती हैं तो भी अवसर अनुसार।
जब "साड़ी डे" आया तब पता नही था की क्या साड़ी भी अब भी विलुप्त्तता के कागार पर आ गयी है। साडी का वर्तमान स्वरुप सिर्फ शादियो की खुबसूरती तक सीमित रह गयी है।
भारत की विभिन्न राज्यो मे साडी को अलग अलग तरह से पहना जाता रहा है मुझे भी बहुत अच्छा लगता है जब उनमे हम नौ देवियो के रुप मे पूजन करते है जैसे बंगाल, महाराष्ट्र , दक्षिण आदि कुछ प्रसिद्धि प्राप्त साड़ियों के राज्य है । हो भी क्यु ना एक वहा की हथकरघा प्राचीन काल से प्रभाव शाली रही हैं। वही मालवा में रहते हुये सीधे पल्लू की साडी एक वैभव्यता का स्वरुप मुझे उसमे दिखता आया हैं जो काफी उत्तर प्रदेश में भी प्रचलित हैं ओर अधिकतर हमारे ग्रामिण अंचल मे भी।
मुझे भी ये मेहसूस किया जब अधिकतर बच्चे अपनी मम्मी से कहते है की "मम्मी आप साडी मे मम्मी लगती हो" या एक ससुराल में क्यु नयी बहू से अपेक्षा की जाती हैं की साडी पहने ये बात थोपने वाली नही हमारी स्वयं की पह्चान की है। फ़िलहाल आज की व्यस्ततम जीन्दगी मे जहा महिला पुरुष बराबरी से परिवार की नैया की जिम्मेदारि निभा रहे जहा वास्तविकता ये हैं की महिलाओ का कार्य दोहरा होता जा रहा जहा परिवरीक कार्य तो हैं ही वरन नोकरिपैशा भी होने से उसे भी ड्रेसिंग को लेकर एक रिलैक्स जोन की आवश्यक्ता मेहसूस होती हैं।
“जिम्मेदारी हमारी “
"साडी स्पीक" मतलब साडी बोलती हैं ,हमारी भारतीय पह्चान । एक शानदार ग्रेसफुल परनेल्टी का एक भाग नजर आता हैं। वही प्रगतीशील वैभवशाली भारतीय नारी साडी मे। कुल मिलाकर एक माँ, बहू ओर ऑफ़िस कार्यक्षेत्र मे एक ग्रेस, आदि की पूर्ण भुमिका साडी के मध्य रिश्तो को कम्फर्ट जोन देती है।
साडी बीच नारी है कि,नारी बीच साडी है,
साडी ही की नारी है कि ,नारी ही की साडी हैं
रिपोटर चंद्रकांत सी पूजारी…